यशोधरा की लघुकथाएं

मरहम

पूरी कोठी दुल्हन की तरह सजी हुई है। सुनहरी रोशनी से नहाई कोठी ! हँसी और खिलखिलाहटों को कोठी की दीवारें बाँध सकने में असमर्थता का अनुभव कर रहीं हैं। हँसी के फव्वारे अंदर-बाहर वातावरण को खुशनुमा बना रहे हैं।
   “कैसी सुंदर लग रही है यह कोठी!  फर्श की टाइल्स लगाने में दाहिने हाथ की उँगली घायल हो गई थी।” दीनू ने अपनी उँगली की ओर देखा…दर्द की एक तरंग सी उठी और मुँह से उफ्फ़ निकल कर रह गया।
     “नक्काशीदार छत भी तो कितनी सुंदर है।” दूर बाहर को झाँकती छत को देख हर्ष भरे स्वर में  बोलते हुए सल्लू ने अपने घायल अँगूठे को देखा…छत का काम करते समय स्क्रू से घायल अँगूठे की पीर हरी हो गई।
  “कोठी बौत ही अच्छी लग रई है भइया।जे दीवारें कैसी मुस्कुरा रई हैं। जेठ की दोपहरिया में मुन्ना को नीम की छाँह में सुला,गारा-सीमेंट सिर पर ढोकर खड़ी की हैं। कुली के कलेजे में कुछ चटका और मुन्ने को कसकर अपने सीने से चिपका लिया।
   “कुछ भी कहो भइया कोठी देखकर मन तो खूबई खुश हो गया।”तीनों एक साथ बोल उठे।
“अरे बाहर क्यों खड़े हो? अंदर आओ।”कहते हुए सेठ जी दीनू के कंधे पर हाथ रख तीनों को बड़े कमरे में ले आए।
          तीनों ने चमचमाते सफेद फर्श पर कुछ सकुचाते हुए धूल भरे पैर अंदर रखे तो देखा हरिया,गोपी ,सुमली, झुमरू… सब कतार में बैठे, सब कुछ भूलकर भोजन का आनंद ले रहे हैं।
 “आओ! आओ! यहाँ बैठो। मैं खाना परोसती हूँ।” सेठानी जी ने तीनों को स्नेह और सम्मान के साथ आसन दिया।
     खीर, पूरी, कचौड़ी, बूंदी का रायता,आलू की तरी वाली सब्जी, गुलाब जामुन और न जाने कितने ही व्यंजन पत्तल में सज गए। व्यंजनों की सुवास नाक से पेट तक पहुँच गई। इस खुशबू, प्यार और सम्मान ने दीनू, सल्लू और कमली की पीर पर मरहम लगा दिया।
यशोधरा भटनागर

 कम्मो

काली घटाओं का घटाटोप, उमड़ते- घुमड़ते बादलों का हृदय-कंपित स्वर । माटी की सौंधी गंध ,बूंदों का संगीत और बूंदों के मृदु प्रहार से नर्तन करते हरित पत्र! ज्येष्ठ जेता गुलमोहर के रक्तिम पुष्पों का जल बूंदों संग झरना! सूखे चरमराते पत्तों का डाल विलग हो,अँगना में बतियाना ! सामने पेड़ की शाख पर गीले पंख सुखाती,फुदकती पीली चोंच वाली काली चिड़िया। अहा ! वर्षा का आगमन ! वर्षा ऋतु का  मंगलकारी ! शुभ सूचक आगमन !
शीघ्र ही पकौड़ों की सुगंध वातावरण में रच-बस गई और नथुनों के रास्ते उतर जिह्वा को रससिक्त कर गई। यही तो सरस आनंद है ।आनंद  हृदयोदधि को प्लावित कर,अधरों पर पसर गया। टप्प-टप्प…टप…टपा-टप्प तीव्रता बढ़ती गई।
 लॉन में बढ़ता पानी का स्तर लघु पोखर का आकार ले रहा था।कागज की छोटी -छोटी नावों पर सवार  हो सद्य: जन्मे पोखर की यात्रा कर झूम उठी।
      बरसते पानी में भीगते- थिरकते,तन- मन भीग गया। तभी बर्तनों की ‘छन्न ‘की आवाज से जमीन पर लौटा लाई।
    कम्मो बर्तन साफ कर रही थी। ‘”जल्दी आ ,बाहर कितना मज़ा आ रहा है ।चल  चाय बना ला.., पोर्च में बैठ कर पिएँगे और हाँ साथ में…।” मैं बोलती चली जा रही थी प्रत्युत्तर में कम्मो चाय लेकर आ गई।
 ”घरों की छतों से झरने बन गिरता पानी कितना अच्छा लग रहा है ? अब गर्मी से थोड़ी राहत मिलेगी । देख पेड़ -पौधे कितने हरे और खुश लग रहे हैं !”
     “मैडम जी मैं घर जाऊँ ?”
 “थोड़ी देर रुक जा ।”
“मैडम जी घर में पानी भर गया होगा।अभी अपने झोपड़े को बरसाती  कहाँ पहराई है? छोरी खाना कैसे बनाएगी ?लकड़ी भी गीली हो गई होगी..चूल्हा कैसे जलेगा ?”
 “अच्छा चाय तो पीकर जा।”
वर्षा की झरती बूंदों के साथ एक-एक घूँट को कंठ में उतारते मैं पावस की पहली झड़ी का आनंद ले रही थी पर कम्मो पूरी चाय एक घूँट गटक गई। उसकी इस उद्विग्नता से मैं भी कुछ परेशान हो गई और मेरा मन कम्मो के साथ हो लिया। सामने ही बनी झोंपड़ियों में एक झोंपड़ी कम्मो की भी है।
     सिर पर दुपट्टा डाल,आप ही आप व्यथा कथा गुनती -गुनाती,चली जा रही थी। झोपड़ी के बाहर ही बिन वसन रमुआ पानी में छपा-छप्प नाच रहा था।किसको ढके ? झोपड़ी या रमुआ? उसकी मुठ्ठी भिंच गई।मुठ्ठी में कसा पसीने से गंधाता नोट तिलमिला गया। उसकी श्वास घुटती गई।सामर्थ्यहीन वह नतशिर चुपचाप झरती बूंदों संग टसकता रहा।
 कम्मो गीली -सूखी लकड़ियों को सुलगाने लगी।झोपड़ी में धुआं ही धुआं भर गया..और पावस संग उसकी आँखें भी झरने लगी।
कम्मो का चूल्हा भी बूंदों की मार संग जलता-बुझता रहा…।छन्न-छन्न, भक्क-भक्क…।
यशोधरा भटनागर
संपर्क 
ग्वालियर, मध्य प्रदेश 
laghu kathayestoriesyashoddhara bhatnagar
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